प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में मानसिक रोगों को कलंक माना जाता रहा है. ये माना जाता है कि मानसिक रोग से ग्रस्त व्यक्ति पर किसी आत्मा का साया है या वो निम्न प्रवृत्ति का है और समाज में जीने योग्य नहीं है. फिल्मों और धारावाहिकों ने भी इस प्रतिगामी मानसिकता को और हवा दी है. फिल्मों में मानसिक रोगियों और उनके अस्पताल को निहायती गलत तरीके से दर्शाया जाता है जो की तथ्यों से कोसों दूर होता है. यही कारण है कि मनोरोगियों को समाज में वह स्थान नहीं मिलता जो मिलना चाहिए. लोग उन्हें “पागल” या “सरफिरा” कहके बुलाते हैं और हर तरह से उनका और उनके परिवार का तिरस्कार करते हैं.
वास्तव में मानसिक रोग होना शारीरिक रोग होने की तरह ही सामान्य बात है. सन २००१ में विश्व स्वास्थय संगठन ने एक रिपोर्ट में खुलासा किया कि विश्व में हर चार में से एक व्यक्ति को अपने जीवन काल में एक बार मनोरोग होने कि संभावना होती है. सोचने वाली बात ये है कि यदि ये आंकड़े सही हैं तो इसका मतलब हमारे आस पास के लोगों में से भी कई ऐसे होंगे जो मनोरोगों से ग्रस्त होंगे. लेकिन अगर आप भी ज़्यादातर लोगों की तरह हैं तो आपकी जानकारी में शायद ही कोई ऐसा होगा. तो क्या विश्व स्वास्थय संगठन के ये आंकड़े झूठे हैं? जी नहीं. ऐसा होने के दो कारण हैं. पहला तो ये कि ज़्यादातर मनोरोगी शर्मिंदगी से और कलंकित होने के डर से अपने घर वालों से ये बात छुपाते हैं. वह अंदर ही अंदर अपने रोग से झूझते रहते हैं और उनके परिवार वालों और साथियों को इसकी भनक भी नहीं होती. दूसरा कारण यह है कि कई लोग स्वयं इस बात से अवगत नहीं होते कि जो वो सोच रहे हैं या महसूस कर रहे हैं वह वाकई में किसी रोग का लक्षण है. उनके आस पास के लोग भी ये कहकर बात को टाल देते हैं कि इसका तो स्वभाव ही कुछ ऐसा है.
किसी के बिना बताये केवल देख के ही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि व्यक्ति मनोरोगी है या नहीं. मानसिक रोग कई प्रकार के होते हैं. इनमें से कुछ में व्यक्ति का व्यवहार स्पष्ट रूप से असामान्य ज़रूर हो जाता है. परन्तु हर एक रोग में ऐसा नहीं होता. चिकित्सा जगत में ३०० से भी ज़्यादा मनोरोगों का वर्गीकरण किया गया है. इनमें से हर एक के लक्षण अलग अलग हैं. जैसे शारीरिक रोगों के लक्षण शारीरिक होते हैं- बदन में तापमान का बढ़ना, सूजन, आँखों में पीलापन, इत्यादि. वैसे ही मानसिक रोगों के लक्षण मानसिक होते है- जैसे सोच, भावनाओं और व्यवहार में अनेक अनचाहे बदलाव आना. इन सभी लक्षणों को बिना पहचाने और रोग किस प्रकार का है ये बिना समझे, किसी मनोरोगी को सिर्फ “पागल” समझना केवल हमारी अज्ञानता को दर्शाता है.
ये हमारी और सरकार की अज्ञानता ही है कि १०० करोड़ की आबादी वाले देश में केवल ४००० साइकेट्रिस्ट और केवल १००० क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट हैं. ये आंकड़े हमारे देश की मानसिक स्वास्थय ज़रूरतें देखते हुए चिंताजनक और शर्मनाक हैं. हम लोग खाँसी-जुखाम, दांत के दर्द, आदि के लिए तो फ़ौरन डॉक्टर के पास भागते हैं. परन्तु अपनी मानसिक परेशानियों को यूँ ही खामोशी से पनपने देते हैं.
मनोचिकित्सा में यह माना जाता है कि अपने अंदर की नकारात्मक भावनाओं को दबा देने पर भी वह अक्सर शारीरिक रूप से उजागर हो जाती हैं. आप अपने आस पास देखें तो कई ऐसे लोग होंगे जिन्हें अच्छे इलाज के बावजूद लगातार पेट की तकलीफ, घबराहट, चक्कर आना, सर दर्द, बदन दर्द, इत्यादि की शिकायत रहती होगी. अगर करीब से देखें तो इनमें से कई किसी न किसी मानसिक तनाव या परेशानी से गुज़र रहे होंगे.
हमारे मन और शरीर का एक गहरा तालमेल है. चिंता में कैसे माथे पे बल पड़ जाते है. गुस्से में गाल लाल हो जाते हैं और घबराहट में पसीना आने लगता है. ये सभी लक्षण बताते हैं कि हमारे मन और शरीर की स्तिथि का असर एक दूसरे पे होता है. शारीरिक रोग और मानसिक रोग दोनों ही अधिकतर जैविक कारणों से होते हैं. इसलिए इनके लक्षणों का एक दुसरे को प्रभावित करना स्वाभाविक है. उदहारण के तौर पे- तनाव में हमारा मस्तिष्क कोर्टिसोल नामक हॉर्मोन छोड़ता है जो हमारी नसों में सूजन और जलन पैदा करता है. इस प्रज्वलन की वजह से व्यक्ति को अनेक प्रकार की शारीरिक तकलीफें हो सकती हैं.
तो क्या मनोरोगों से ग्रस्त व्यक्ति इन तमाम मानसिक और शारीरिक लक्षणों की वजह से एक सामान्य जीवन नहीं जी सकता? बिलकुल जी सकता है. मेरी अपनी प्रैक्टिस में मैं रोज़ अलग अलग क्षेत्र से जुड़े मरीज़ देखती हूँ. उन मरीज़ों में डॉक्टर्स भी हैं, अच्छे कॉलेजों में पढ़ने वाले लड़के-लडकियां भी और ऊँचे पदों पे कार्यरत लोग भी हैं. आप उनसे बाहर कहीं मिलेंगे तो पहचान भी नहीं पाएंगे कि वो अपने अंदर कितनी परेशानियोँ समेटे हैं. इसके ज़िम्मेदार हम हैं, सारा समाज है. हमारी संचुकित सोच की वजह से न जाने कितने लोग घुट घुट कर जीने के लिए मजबूर हैं. हम सबके लिए ये जानना आवश्यक है कि मानसिक रोग होना किसी कलंक की बात नहीं. आज के युग में दवाइयों और साइकोथेरेपी द्वारा इनका उचित उपचार संभव है. ज़रुरत है तो बस एक कदम बढ़ाने की. ये कदम बढ़ाना मुश्किल ज़रूर है, पर मुमकिन है.